ये विचार स्वामी जी के ग्रन्थों व उनके भाषणों से संग्रहीत किए गए हैं। अद्वैत आश्रम से प्रकाशित ‘Complete Works of Swami Vivekananda’ नामक ग्रंथावली से चुने हुए विचारों का हिन्दी भावानुवाद प्रस्तुत है:-
- शिक्षा क्या है? क्या यह किताबों की रटाई है? नहीं। तो क्या अलग अलग तरह की जानकारियाँ? ये भी नहीं। शिक्षा वह प्रक्रिया है जिससे कि हम अपनी इच्छाओं के प्रवाह और प्रभाव को काबू करना सीखते हैं।
- कोई किसी को कुछ सिखा नहीं सकता। अगर एक शिक्षक सोचता है वह बालक को सिखा रहा है, तो वह शिक्षक अज्ञान में है। वेद के अनुसार सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर ही मौजूद है। बालक में सारा ज्ञान है, केवल उसे जगाने कि आवश्यकता है, और शिक्षक का यही एक कार्य है। हमें बालकों को केवल उनके अपने ज्ञान का उपयोग करना सिखाना है।
- इस संसार की सारी धन-दौलत भी हमारे गाँवों की सहायता नहीं कर सकते यदि लोगों को परस्पर सहयोग की शिक्षा नहीं दी जाती। हमारा मुख्य कार्य शैक्षणिक है – नैतिक शिक्षा और बौद्धिक शिक्षा।
- जनता को शिक्षित करो, राष्ट्र कल्याण का यही एक साधन है। शिक्षा के प्रसार के बिना किसी राष्ट्र की उन्नति की कोई आशा नहीं।
- मनुष्य के भीतर पहले से ही छिपी संपूर्णता को उजागर करना ही शिक्षा का लक्ष्य है।
- यूरोप के नगरों कि यात्रा के दौरान जब मैं निर्धन लोगों को भी आनंद में देखता, शिक्षित देखता, और मुझे अपने देशवासियों की अशिक्षा का ध्यान आता था, तो मेरे नेत्र गीले हो जाते थे। अंतर क्या था? मुझे केवल एक ही उत्तर सूझा – शिक्षा। शिक्षा के माध्यम से ही आत्मविश्वास आता है और ब्रह्म का प्रकाश आत्मा में प्रकट होता है।
- शिक्षा का संसार में अभी आगमन होना बाकी है। और सभ्यता अभी दूर का सपना है।
- बहुत सी बातों से दिमाग को ठूंस लेना शिक्षा नहीं है। शिक्षा का उद्देश्य है स्वयं पर विजय।
- अगर जानकारी ही शिक्षा है तो पुस्तकालय और इन्साइक्लोपेडिया ही शिक्षित हुए, ऋषि हुए।
- अगर एक निर्धन बालक शिक्षा तक नहीं पहुँच सकता तो शिक्षा को ही बालक के पास पहुँचना चाहिए।
- रामकृष्ण परमहंस कहते थे – जब तक मैं सीख रहा हूँ, मैं जी रहा हूँ। जिस व्यक्ति या समाज ने सीखना छोड़ दिया, समझो वह मृत्यु के जबड़ों में प्रवेश कर गया।
- जो शिक्षा मनुष्य को जीवन के संघर्ष के लिए तैयार करे, चरित्र में शक्ति का संचार करे, मानव के प्रति प्रेम भावना जागा दे, और सिंह का सा साहस भर दे, वही तो शिक्षा कहलाने के योग्य है। सच्ची शिक्षा पैरों पर खड़ा करती है।
- शिक्षा का उद्देश्य होता है- मानव निर्माण। किन्तु हम मानव कि बाहरी लीपा-पोती कर रहे हैं। जब भीतर ही कुछ नहीं होगा तो बाहरी लीपा-पोती से कुछ नहीं होने वाला।
- यदि जातीय समानता लानी है तो शिक्षा में समानता लानी ही होगी।
- मेरी दृष्टि में, शिक्षा आंकड़े और तथ्य इकट्ठे करना नहीं है, बल्कि एकाग्रता पाना है। अगर मुझे मेरी शिक्षा दोबारा से ग्रहण करने का अवसर मिले तो मैं आंकड़े और तथ्य तो पढ़ूँगा ही नहीं, केवल और केवल एकाग्रता पर ही सारा ध्यान दूंगा। एक बार एकाग्रता आ गई तो सब कुछ मिल गया। बालक को आरंभ से ही एकाग्रता की शिक्षा दी जाने चाहिए।
- जैसे आप एक पौधा उगाते हैं, वैसे ही बालक को भी शिक्षित करना होता है। आप केवल सहायता कर सकते हैं, विकास उसके अपने भीतर से आएगा, आप केवल बाधाएँ हटा सकते हैं।
- जिस शिक्षा को आप प्राप्त कर रहे हैं, उसमें कमियाँ भरी पड़ी हैं। यह शिक्षा मानव निर्माण में पूरी तरह असफल है, और नकारात्मकताओं से ग्रस्त है। और नकारात्मक शिक्षा मृत्यु से भी भयानक है। हमारा बालक स्कूल में पहुंचता है और पहली बात ये सीखता है कि उसका बाप बेवकूफ है, उसके दादा पागल थे और उसके धर्मग्रंथ असत्य हैं। सोलह बरस का होने तक वह नकारात्मकता का पुंज बन जाता है – एक निर्जीव व्यक्ति। परिणाम ये है कि हमारी शिक्षा ने एक भी पूर्ण व्यक्तित्व पैदा नहीं किया है। जो भी व्यक्ति कुछ मौलिकता रखता है वह इस देश से बाहर शिक्षा लेकर आया है।
- इससे बढ़कर दुर्भाग्य क्या होगा कि हमारे शिक्षित लोग आपको विदेशों के बारे में हजार बातें तो गिना देंगे, किन्तु क्या एक भी शिक्षित कहलाने वाले आदमी को अपनी सात पीढ़ियों के पूर्वजों के नाम याद हैं?
- शिक्षक को विद्यार्थी का आदर्श होना ही चाहिए। बिना शिक्षक के चरित्र से शिक्षा झलके कोई शिक्षा संभव नहीं। हमारी यूनिवर्सिटियाँ एक भी मौलिक शिक्षक व विद्यार्थी नहीं दे पाई हैं। ये केवल परीक्षा संस्थाएँ बनकर रह गई हैं।
- बालक को आरंभ से ही ऐसे व्यक्ति के संपर्क में रखा जाए जिसका चरित्र जलती आग की तरह पवित्र हो। ब्रह्मचर्य से ही श्रद्धा का उदय होगा, और श्रद्धा से ही शिक्षा सम्पन्न होगी। भारत में तब तक सब ठीक था जब तक सन्यासी यहाँ शिक्षा बांटता था। बाद में पंडितों ने शिक्षा पर एकाधिकार करके भारत का सत्यानाश कर डाला।
- धर्म शिक्षा का केन्द्रबिन्दु है, धर्म शिक्षा का सबसे भीतरी तत्त्व है। जैसे दाल के बिना चावल ठीक से हजम नहीं होते, आत्मिक ज्ञान के बिना शिक्षा को पचाया नहीं जा सकता।